जहां पर्यावरण पर आघात हो रहा हो वहां कोई मुखर आवाज नहीं उठती, मगर दीपावली में पटाखों के खिलाफ मुहिम छेड़ पर्यावरण संरक्षण का प्रबंध किया जाता है ...…
बड़े पैमाने पर जो यह प्रचार किया गया कि दीपावली के दौरान पटाखों और आतिशबाजी के इस्तेमाल से प्रदूषण होता है उसका ही परिणाम है उन पर प्रतिबंध दिल्ली में प्रदूषण नियंत्रण समिति ने अगली एक जनवरी तक पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है ...…
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश कि केवल ग्रीन क्रैकर्स का ही उत्पादन और बिक्री होनी चाहिए अपनी जगह बिल्कुल सही है प्रदूषण रोकने के लिए जो कदम आवश्यक हो उठाए जाने चाहिए परंतु एक बहुत सादा और सरल प्रश्न है कि यदि कोई मोटा व्यक्ति दुबला होना चाहता है तो क्या साल में एक दिन उपवास करने से दुबला हो जाएगा या उसे साल भर अपने खाने-पीने पर नियंत्रण रखना पड़ेगा???
समझने की बात है अगर हमें किसी समस्या का दूरगामी और स्थायी समाधान ढूंढ़ना है तो हमें उस पर हरसंभव तरीके से निरंतर प्रहार करना होगा यह जान लेना समीचीन होगा कि अन्य देशों में क्या प्रचलन है? असलियत यह है कि दुनिया के अधिकांश देशों में नववर्ष के आगमन पर, स्वतंत्रता दिवस पर और अन्य महत्वपूर्ण मौकों पर आतिशबाजी और पटाखे बड़े पैमाने पर छोड़े जाते हैं ...…
आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में नववर्ष 2020 के अवसर पर 58 लाख डालर आतिशबाजी और पटाखों पर खर्च किए गए जिसमें करीब 8,000 किलोग्राम की आतिशबाजी छोड़ी गई ...…
अमेरिका के डिज्नी मनोरंजन स्थलों में प्रतिवर्ष करीब पांच करोड़ डालर की आतिशबाजी जलाई जाती है और करीब 40,000 किलोग्राम पटाखे छोड़े जाते हैं स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अमेरिका में करीब 100 करोड़ डालर आतिशबाजी पर खर्च होता है और करीब 12 करोड़ किलोग्राम आतिशबाजी जलाई जाती है ...…
कहने का तात्पर्य यह है कि पश्चिमी देशों में खुशी के मौके पर आतिशबाजी और पटाखे दिल खोलकर छोड़े जाते हैं परन्तु वहां की सरकार और जनता पर्यावरण का पूरे साल ख्याल रखते हैं सड़कें साफ होती हैं नदियों का पानी निर्मल दिखता है आप जहां-तहां कचरा नहीं फेंक सकते और जंगल भी हरे-भरे हैं अपने देश में क्या होता है यह भी जान लीजिए हमारी सबसे पवित्र नदी गंगा के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है गंगा के किनारे हर प्रकार की फैक्ट्रियां लगी हुई हैं कपड़े की, दवाई बनाने की, सीमेंट उत्पादन की, रासायनिक पदार्थों की बिजली के उपकरण बनाने की, शीशा, कागज, चमड़ा और पेट्रोलियम इत्यादि की ...…
एक आंकलन के अनुसार इन फैक्ट्रियों से लगभग 300 करोड़ लीटर गंदगी रोज गंगा में गिरती है नतीजा यह है कि गंगा का पानी अशुद्ध होता जा रहा है सरकार गंगा एक्शन प्लान द्वारा नदी को गंदगी से बचाने की कोशिश कर रही है परन्तु ऐसा लगता है कि गंदगी का महिषासुर जीत रहा है ...…
एक और उदाहरण देना प्रासंगिक होगा हर पढ़े-लिखे भारतीय के पास आजकल स्मार्टफोन है और एक औसत भारतीय वाट्सएप का दीवाना है सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में इस समय 53 करोड़ लोग वाट्सएप का इस्तेमाल कर रहे हैं एक छोटा सा संदेश करीब चार ग्राम का कार्बन फुटप्रिंट देता है अगर आप उसके साथ कुछ संलग्नक भी भेजते हैं तो यह आंकड़ा बढ़कर 50 ग्राम कार्बन का हो जाता है उदाहरण के लिए मान लिया जाए कि एक संदेश से केवल 20 ग्राम कार्बन का फुटप्रिंट होगा हम भारतीय करीब 400 करोड़ संदेश रोज भेज रहे हैं इनका कुल कार्बन फुटप्रिंट करीब 10 करोड़ किलोग्राम होगा ...…
एक कार जब 5.2 किलोमीटर चलती है तो उससे करीब एक किलोग्राम कार्बन वायुमंडल में आ जाता है यह मानते हुए कि एक औसत भारतीय गाड़ी वर्ष में करीब 12,000 किलोमीटर चलती होगी हम प्रतिवर्ष वाट्सएप संदेश द्वारा इतना कार्बन फुटप्रिंट पैदा करते हैं जितना साल भर करीब 40,000 गाड़ियों के चलने से होगा अगर हम इसमें फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम के संदेश भी जोड़ दें तो तस्वीर और भयावह हो जाएगी भारत में 41 करोड़ लोग फेसबुक पर हैं, 1.75 करोड़ ट्विटर पर और 21 करोड़ इंस्टाग्राम पर हैं इससे आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं ...…
ऐसे तमाम प्रश्न उठाए जा सकते हैं आजकल बहुत से स्कूल और कालेज पूरी तरह से वातानुकूलित हैं इनमें पढ़ने वाले बच्चे देश के गांव में तो कभी कोई काम नहीं करेंगे घर से बाहर निकलते ही उन्हें गर्मी या सर्दी सताने लगेगी इन स्कूल और कालेजों द्वारा कितना प्रदूषण हो रहा है इसका किसी ने हिसाब लगाया है? अमीर लोगों के बच्चे स्कूल बस से नहीं बल्कि अपनी कार से जाते हैं अगर वे बस से जाएं तो प्रदूषण में कितनी कमी होगी इसकी कल्पना कीजिए ...…
एयर कंडीशनर धड़ाधड़ घरों में और दफ्तरों में दिन-रात चलते हैं इसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है कभी किसी ने नहीं सोचा है? किसान खुलेआम पराली जलाते हैं उससे पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित होता है ...…
संक्षेप में कहें तो हम अशर्फी पर लूट और कोयले पर मोहर वाले सिद्धांत पर चल रहे हैं यानि जहां पर्यावरण के प्राण हरे जा रहे हैं वहां तो कोई आवाज नहीं उठती परन्तु दीपावली में पटाखे और आतिशबाजी छोड़ने के खिलाफ मुहिम चलाकर हम समझते हैं कि हमने पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा दी ...…
कुछ लोग कहते हैं कि हमारी धार्मिक भावनाओं पर आघात करने का एक षड्यंत्र चल रहा है पता नहीं यह बात सही है या एक भ्रामक प्रचार है परन्तु हमें अपने जीवन में संतुलन लाने की आवश्यकता है पर्यावरण को हमें बचाना है इसके लिए जहां पर्यावरण पर आघात हो रहा है वहां उस पर अंकुश लगाने की जरूरत है जहां तक पटाखों का सवाल है वह ऐसे बनाए जाएं जिनसे प्रदूषण न हो और यदि हो तो न्यूनतम हो उन्हें छोड़ने का दिन, समय और स्थल भी निर्धारित किए जा सकते हैं ...…
बहरहाल हमारे जीवन में खुशियों के जो थोड़े मौके हैं और ऐसे मौके जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़े हैं उन पर प्रहार करने का क्या औचित्य है? इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है !!!!!!!!!