*शत कोटि नमन महारानी लक्ष्मीबाई 19 नवम्बर, 1835/ जयंती*
*खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थीं.*
भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं।सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। प्रलोभन उसे कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते। उसका लक्ष्य उदार और उच्च होता है। उसका चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव धर्मनिष्ठ, आत्म विश्वासी, कर्तव्य परायण और स्वाभिमानी होता है। ऐसी ही थीं वीरांगना लक्ष्मीबाई।
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में19 नवंबर सन्1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इन की माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मी बाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं।
इधर सन्1838 में गंगाधरराव को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे।सन्1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ। सन् 1851 में उन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया।
सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवम्बर 1,853 को चल बसे।
यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेज़ी सरकार को सूचना दे दी थी। परन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया।
27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेज़ी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, *'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'।* 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेज़ों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राज महल में निवास करने लगीं।
यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। अंग्रेज़ों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी।रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्ण अवसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई।
भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई।समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31मई सन्1857 निश्चित की गई, लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई 1857 को मेरठ में तथा 4 जून सन् 1857 को कानपुर में, भीषण विप्लव हो गए। कानपुर तो 28 जून सन्1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया।अंग्रेज़ों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।
उन्होंने सागर,गढ़कोटा,शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार किया और नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया।
लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उन के आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च सन् 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेज़ी सेना के छक्के छूट गए।
रानी लक्ष्मी बाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेज़ों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया।
वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेज़ों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।
उन्होंने नानासाहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से सम्पर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज़ मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुआ,लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।
कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा,वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया।विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।
इधर सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं।
18 जून 1858 को ग्वालियर का अन्तिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की।