रक्षा बंधन कैसे शुरू हुआ, इसका क्या महत्व है? वैदिक राखी से क्या होगा लाभ?
भारतीय संस्कृति में श्रावणी पूर्णिमा को मनाया जानेवाला रक्षाबंधन पर्व भाई-बहन के पवित्र स्नेह का प्रतीक है। यह पर्व मात्र रक्षासूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन देने का ही नहीं, वरन् प्रेम, स्नेह, समर्पण, संस्कृति की रक्षा, निष्ठा के संकल्प के जरिये हृदयों को बाँधने का वचन देने का भी पर्व है। हमारी भारतीय संस्कृति त्याग और सेवा की नींव पर खड़ी होकर पर्वरूपी पुष्पों की माला से सुसज्जित है। इस माला का एक पुष्प रक्षाबन्धन का पर्व भी है। इस साल 22 अगस्त को रक्षाबंधन है। राखी बांधने का समय सूर्योदय से शाम 5:30 बजे तक है।
वैदिक रक्षासूत्र बाँधने की परम्परा तो वैदिक काल से रही है, जिसमें यज्ञ, युद्ध, आखेट, नये संकल्प और धार्मिक अनुष्ठान के आरम्भ में कलाई पर सूत का धागा (मौली) बाँधा जाता है।
कैसे शुरू हुआ रक्षाबंधन
सब कुछ देकर त्रिभुवनपति को अपना द्वारपाल बनानेवाले बलि को लक्ष्मीजी ने राखी बाँधी थी। राखी बाँधनेवाली बहन अथवा हितैषी व्यक्ति के आगे कृतज्ञता का भाव व्यक्त होता है। राजा बलि ने पूछा : ‘‘तुम क्या चाहती हो?'' लक्ष्मीजी ने कहा : ‘‘वे जो तुम्हारे नन्हे-मुन्ने द्वारपाल हैं, उनको आप छोड़ दो।'' भक्त के प्रेम से वश होकर जो द्वारपाल की सेवा करते हैं, ऐसे भगवान नारायण को द्वारपाल के पद से छुड़ाने के लिए लक्ष्मीजी ने भी रक्षाबंधन-महोत्सव का उपयोग किया।
शचि ने इन्द्र को राखी बाँधी तो इन्द्र में प्राणबल का विकास हुआ और इन्द्र ने युद्ध में विजय प्राप्त की। धागा तो छोटा सा होता है लेकिन बाँधने वाले का शुभ संकल्प और बँधवाने वाले का विश्वास काम कर जाता है।
कुंती ने अभिमन्यु को राखी बाँधी और जब तक राखी का धागा अभिमन्यु की कलाई पर बँधा रहा तब तक वह युद्ध में जूझता रहा। पहले धागा टूटा, बाद में अभिमन्यु मरा। उस धागे के पीछे भी तो कोई बड़ा संकल्प ही काम कर रहा था कि जब तक वह बँधा रहा, अभिमन्यु विजेता बना रहा।
लोकमान्य तिलक जी कहते थे कि मनुष्यमात्र को निराशा की खाई से बचाकर प्रेम, उल्लास और आनंद के महासागर में स्नान कराने वाले जो विविध प्रसंग हैं, वे ही हमारी भारतीय संस्कृति में हमारे हिन्दू पर्व हैं। हे भारतवासियों ! हमारे ऋषियों ने हमारी संस्कृति के अनुरूप जीवन में उल्लास, आनंद, प्रेम, पवित्रता, साहस जैसे सदगुण बढ़ें ऐसे पर्वों का आयोजन किया है।
तिलक जी ने यह ठीक ही कहा कि अपने राष्ट्र की नींव धर्म और संस्कृति पर यदि न टिकेगी तो देश में सुख, शांति और अमन-चैन होना संभव नहीं है।
रक्षाबंधन के पर्व पर एक-दूसरे को आयु, आरोग्य और पुष्टि की वृद्धि की भावना से राखी बाँधते हैं।
रक्षाबंधन का उत्सव श्रावणी पूनम को ही क्यों रखा गया?
भारतीय संस्कृति में संकल्पशक्ति के सदुपयोग की सुंदर व्यवस्था है। ब्राह्मण कोई शुभ कार्य कराते हैं तो कलावा (रक्षासूत्र) बाँधते हैं ताकि आपके शरीर में छुपे दोष या कोई रोग, जो आपके शरीर को अस्वस्थ कर रहे हों, उनके कारण आपका मन और बुद्धि भी निर्णय लेने में थोड़े अस्वस्थ न रह जायें। सावन के महीने में सूर्य की किरणें धरती पर कम पड़ती हैं, किस्म-किस्म के जीवाणु बढ़ जाते हैं, जिससे किसीको दस्त, किसीको उलटियाँ, किसीको अजीर्ण, किसीको बुखार हो जाता है तो किसीका शरीर टूटने लगता है । इसलिए रक्षाबंधन के दिन एक-दूसरे को वैदिक रक्षासूत्र बाँधकर तन-मन-मति की स्वास्थ्य-रक्षा का संकल्प किया जाता है । रक्षासूत्र में कितना मनोविज्ञान है, कितना रहस्य है!
अपना शुभ संकल्प और शरीर के ढाँचे की व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए यह श्रावणी पूनम का रक्षाबंधन महोत्सव है।
‘रक्षाबंधन के दिन वैदिक रक्षासूत्र बाँधने से वर्ष भर रोगों से हमारी रक्षा रहे, बुरे भावों से रक्षा रहे, बुरे कर्मों से रक्षा रहे'- ऐसा एक-दूसरे के प्रति सत्संकल्प करते हैं।
कैसे बनायें वैदिक रक्षासूत्र?
दुर्वा, चावल, केसर, चंदन, सरसों को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर एक पीले रंग के रेशमी कपड़े में बांध लें, यदि इसकी सिलाई कर दें तो यह और भी अच्छा रहेगा। इन पांच पदार्थों के अलावा कुछ राखियों में हल्दी, कौड़ी व गोमती चक्र भी रखा जाता है। रेशमी कपड़े में लपेटकर बांधने या सिलाई करने के पश्चात इसे कलावे (मौली) में पिरो दें। आपकी राखी तैयार हो जाएगी।
वैदिक राखी का महत्व :
वैदिक राखी का विशेष महत्व होता है। मान्यता है कि सावन के मौसम में यदि रक्षासूत्र को कलाई पर बांधा जाये तो इससे संक्रामक रोगों से लड़ने की हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। साथ ही यह रक्षासूत्र हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचरण भी करता है।
रक्षाबंधन के दिन बहन भैया के ललाट पर तिलक-अक्षत लगाकर संकल्प करती है कि ‘जैसे शिवजी त्रिलोचन हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, वैसे
मेरे भाई में भी विवेक-वैराग्य बढ़े, मोक्ष का ज्ञान, मोक्षमय प्रेमस्वरूप ईश्वर का प्रकाश आये'। ‘मेरे भैया की सूझबूझ, यश, कीर्ति और ओज-तेज अक्षुण्ण रहें।'
बहनें रक्षाबंधन के दिन ऐसा संकल्प करके रक्षासूत्र बाँधें कि ‘हमारे भाई भगवत्प्रेमी बनें ।' और भाई सोचें कि ‘हमारी बहन भी चरित्रप्रेमी, भगवत्प्रेमी बने।' अपनी सगी बहन व पड़ोस की बहन के लिए अथवा अपने सगे भाई व पड़ोसी भाई के प्रति ऐसा सोचें। आप दूसरे के लिए भला सोचते हो तो आपका भी भला हो जाता है। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। अतः आप ऐसा संकल्प करें कि हमारा आत्मस्वभाव प्रकटे।
सर्वरोगोपशमनं सर्वाशुभविनाशनम्। सकृत्कृते नाब्दमेकं येन रक्षा कृता भवेत्।।
‘इस पर्व पर धारण किया हुआ रक्षासूत्र सम्पूर्ण रोगों तथा अशुभ कार्यों का विनाशक है। इसे वर्ष में एक बार धारण करने से वर्ष भर मनुष्य रक्षित हो जाता है।' (भविष्य पुराण)
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वां अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
जिस पतले रक्षासूत्र ने महाशक्तिशाली असुरराज बलि को बाँध दिया, उसीसे मैं आपको बाँधती हूँ। आपकी रक्षा हो। यह धागा टूटे नहीं और आपकी रक्षा सुरक्षित रहे। - यही संकल्प बहन भाई को राखी बाँधते समय करे। शिष्य गुरु को रक्षासूत्र बाँधते समय ‘अभिबध्नामि' के स्थान पर ‘रक्षबध्नामि' कहें।
रक्षाबंधन पर्व समाज के टूटे हुए मनों को जोड़ने का सुंदर अवसर है। इसके आगमन से कुटुम्ब में आपसी कलह समाप्त होने लगते हैं, दूरी मिटने लगती है, सामूहिक संकल्पशक्ति साकार होने लगती है।
उपाकर्म संस्कार
उपाकर्म संस्कार: इस दिन गृहस्थ ब्राह्मण व ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर और गौ-मूत्र को मिलाकर पंचगव्य बनाते हैं और उसे शरीर पर छिड़कते, मर्दन करते व पान करते हैं, फिर जनेऊ बदलकर शास्त्रोक्त विधि से हवन करते हैं। इसे उपाकर्म कहा जाता है। इस दिन ऋषि उपाकर्म कराकर शिष्य को विद्याध्ययन कराना आरम्भ करते थे।
उत्सर्जन क्रिया
उत्सर्जन क्रिया: श्रावणी पूर्णिमा को सूर्य को जल चढाकर सूर्य की स्तुति तथा अरुंधती सहित सप्त ऋषियों की पूजा की जाती है और दही-सत्तू की आहुतियाँ दी जाती हैं। इस क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं।