*याज्ञसैनी द्रौपदी : आत्मकथा*
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_(अपमान और संघर्ष का स्वकथन )_
_मध्याह्न के भोजन के बाद अपराह्न में सब लोग विश्राम कर रहे थे, तभी मैंने उल्लिसत -कंपित हृदय से उस सुगन्धित कमल की पंखुड़ियां खोलीं । सच, कमल के स्तरों पर सखा के अमिट हस्ताक्षर थे – परम आवेग से पंखुड़ी दर पंखुड़ी मैं पढ़ती गई_
" प्रिय सखी ! __ तुम्हारे लिए मैं ओंकार हूं, जो आत्मा को स्पर्श करता है, ऊध्व उठाता है, अनन्त नीलिमा में मिलता है , फैल जाता है, विश्व-ब्रह्मांड में सृष्टि, स्थिति , प्रलय के स्वर में मिल जाता है । सृष्टि, स्थिति , प्रलय के बीच तुम्हारा -मेरा बन्धन अविच्छेद्य , अलंघ्य है। देखो , यह पद्म। आकाश में सूर्य , पर जल में पद्म एकाग्र प्रतीक्षा करता है। वह सूर्य को पा जाता है जल में । सूर्य प्रतिबिंबित हो तो प्रतिबिंब पर ही पद्म पंखुरियां झर जाती हैं । इसके जीवन की सार्थकता बस इतनी ही है । मैं हूं तुम्हारे हृदय में प्रतिबिंबित हो रहा हूं मेरे प्रतिबिंब को जो 'मैं ' नहीं समझता , वह मुझे नहीं पा सकता । जो मुझे पाता है , ' मैं ' उसमें प्रतिबिंबित होता है सखी ! जो तुम्हारी प्रभाती का मंत्र है , सांध्य आरती की झंकार भी वही है।
तुम्हारे पास -पास हूं। भय कैसा ? तुम्हारा जीवनमय साधना सखा। " पत्र पढ़ते - पढ़ते मैं पद्म फूल हो गई । सूर्य के प्रतिबिंब पर पंखुड़ी झरा दी - कृष्ण -प्रेम की विशालता में स्वयं को अर्पित कर दिया । घनी केतकी की पंखुड़ी को अधरों के रंग से रंगकर प्रीति का प्रत्युत्तर लिखा : " हृदयेश्वर , सखा ! आपके लिए मैं उद्यान हूं , जहां फूल खिलते हैं । क्यों खिलते हैं , नहीं जानते । खिला फूल कभी झर जाता है क्यों झरता है सो भी वहनहीं जानता । बस इतना जानता है कि जिसके लिए खिलता है उसी के लिए झर जाता है । अतः खिले फूल की सार्थकता और झरे फूल की व्यथा एक को ही अर्पित है । वह एक हैं आप - आपमें जिसे खोजती हूं , वह भी आपसे भिन्न नहीं ।
आप मेरे कृष्ण , आप मेरे ‘ अर्जुन ', आप विश्वमय , आशा- प्रत्याशा के बहुत ऊध्व हैं । आप मेरे सखा हैं । आप मेरे हों या न हों -मैं आपकी , मैं आपकी... ” |
केतकी - पत्र समीर के साथ बहकर मेरे हाथ से उड़कर गिर पड़ा उनके चरणों में । उन्होंने पत्र उठाकर पढ़ते - पढ़ते हंसी बिखेर दी , मैं लाल पड़ गई। उनके पांवों पर निगाह रखे चकित होकर देखती रही कि पत्र पढ़ रहे हैं । अर्जुन , जबकि लिखा था सखा कृष्ण को ! अर्जुन के पीछे दिख रहा है मुस्कराता सखा का चेहरा । अर्जुन ने पत्र पढ़ पूरा नहीं किया और सखा सब कुछ जान गए। कह उठे – “ सखा , दूसरे का पत्र पढ़ना अन्याय है। यह पत्र मुझे लिखा है कृष्णा ने । "
__ “ परन्तु पत्र मेरे पांव पर गिरा। ” अर्जुन बोले ।
कृष्ण ने हंसकर कहा - “ तो पत्र आपका है , उसके भाव, भाषा मेरे हैं । पत्र पढ़ने से पहले ही आत्मस्थ हो गया है। " “ कैसे ? ” अर्जुन ने पूछा । उन्होंने तब कहा - “ यही तुममें और मुझमें अन्तर है। तुम जिसे स्थूल रूप में पाते हो , मैं उसे सूक्ष्म अनुभव में ग्रहण करता हूं। द्रौपदी तुम्हारी है, उसकी देहातीत सत्ता मेरी है । यह संधि हमारे बीच बहुत पहले हो चुकी है। आज उस पर बहस कैसी ? ' ___ अर्जुन ने हाथ जोड़ लिए - “ आदमी सब जानकर भी अनजान की तरह काम करता है। यही संसार की माया है ।
हम जानते हैं कि पांडव कृष्ण के हैं , यह संसार कृष्ण का है । कृष्णा भी कृष्ण की है । फिर भी माया में पड़ कर कभी - कभी कृष्णा के लिए कृष्ण से ईर्ष्या हो जाती है। ” कृष्ण हंस पड़े, बोले - “ छंदपतन में ही जीवन की मधुरता है । दांपत्य जीवन में मान गुमान की तरह ईर्ष्या भी मधुचक्र पैदा करती है । अतः तुम्हारे दांपत्य जीवन में मधुचक्र उत्पन्न करने के सिवा मेरा और कोई उद्देश्य नहीं... सखा , विश्वास करो। कृष्णा और तुम्हारे बीच में सिर्फ मधुचक्र हूं । "
___ अर्जुन और कृष्ण मेरी आंखों में इकसार दिख रहे हैं । मैं विह्वल होकर अपलक देखती रही । फल - फूल भरे काम्यक वन की अपनी ही एक माया है। द्वारकाधीश मर्यादापुरुष कृष्ण की दूसरी पटरानी सत्यभामा को काम्यक वन की शोभा एवं शांतिपूर्ण परिवेश में रहते - रहते पूरा सप्ताह बीत गया । फिर भी जी नहीं भरा । दो सखियों की तरह हम दोनों हंसती खेलतीं, सुख - दुःख, हास - परिहास करतीं मन खोले रहतीं ।
कई दिन हुए हरिता , सुभद्रा , माया , नितंबिनी के साथ खुले मन बातें करने का अवसर ही नहीं मिला , अतः सत्या को पास पाकर खूब बातें चलीं । ममता पाकर सत्या और भी प्रगल्भ हो उठी है। सप्ताह भर में मेरे पंचपतियों के साथ दांपत्य जीवन का मधुर प्रवाह देखती रही - अभिभूत होती रही । इतना ही नहीं, बहु नारियों के काम्य पुरुष उनके पति कृष्ण को मेरे प्रति आकर्षण और अनुराग उन्हें विस्मित कर रहा था । तनिक - सी ईर्ष्या भी कहीं हो रही थी साथ ही ।
मैं एक साथ पांच की प्रेमभाजन हो पाती हूं और खुद सुखी होने के साथ- साथ सुखी रख सकती हूं , इस पर अचम्भा हो रहा है उन्हें । इतना ही नहीं , कृष्ण के साथ मेरे बेरोक -टोक मेलजोल एवं अकुंठ आदर -स्नेह को मेरे पति कैसे उदार हृदय से ग्रहण करते हैं , वे सोच भी नहीं पातीं। भीम - सा भयंकर असंतुष्ट पुरुष कैसे संभाल पाती हूं , देखकर आश्चर्य से भर जाती हैं वे । इन सात दिन में सखा कृष्ण के साथ उनका तर्क -वितर्क और राग - द्वेष हुआ है । हर बार कृष्ण ने मुझे ही मध्यस्थता के लिए बुलाया । परन्तु मेरे पंचपतियों के साथ तर्क -वितर्क तो दूर , मान - गुमान की भनक तक भामा को नहीं मिली । जबकि परिवार की सभी चर्चाओं में मैं भाग लेती । अपने विचार भी रखती , ज़रूरत पड़ने पर पतियों के विचारों का खंडन करती । युधिष्ठिर तक की बात का प्रतिवाद किया है , भीम के तर्कों पर उन्हें समझाया है । फिर भी हमारे बीच कोई राग- द्वेष, मनोमालिन्य नहीं दिखा उन्हें । उलटे हर बात में पति मेरा मत ही मांगते , मेरे बिना कोई महत्त्वपूर्ण फैसला नहीं लेते । यह सब देख सत्या एकदम अचम्भे में थीं ।