27 अगस्त/पुण्य-तिथि
बहुमुखी प्रतिभा के धनी : प्रताप नारायण जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक मुख्यतः संगठन कला के मर्मज्ञ होते हैं; पर कई कार्यकर्ताओं ने कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रतिभा दिखाई है। ऐसे ही थे श्री प्रताप नारायण जी। स्वास्थ्य की खराबी के कारण जब उन्हें प्रवास न करने को कहा गया, तो वे लेखन के क्षेत्र में उतर गये और शीघ्र ही इस क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हो गये।
प्रताप जी का जन्म 1927 में ग्राम करमाडीह, जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य परिवार में हुआ था। कक्षा 10 में पढ़ते समय वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित होकर शाखा जाने लगे। आगे चलकर वे संघ के प्रति ही पूर्णतः समर्पित हो गये। उन्होंने विवाह के झ॰झट में न पड़कर जीवन भर संघ कार्य करने की प्रतिज्ञा ली। घर-परिवार के सम्बन्ध पीछे छूट गये और वे विशाल हिन्दू समाज के साथ एकरस हो गये।
प्रचारक के रूप में उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए वे अवध के प्रान्त प्रचारक का गुरुतर दायित्व सम्भालते रहे। इस दौरान उनका केन्द्र लखनऊ था, जो सदा से राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। प्रताप जी ने केवल जनसंघ के ही नहीं, तो विरोधी दल के अनेक नेताओं से भी अच्छे सम्बन्ध बना लिये। उन दिनों भाऊराव जी का केन्द्र भी लखनऊ था। उनका दिशा निर्देश पग-पग पर मिलता ही था।
भाऊराव ने उन्हें जो भी काम उन्हें सौंपा, प्रताप जी ने तन-मन से उसे पूरा किया। सबके साथ समन्वय बनाकर चलने तथा बड़ी-बड़ी समस्याओं को भी धैर्य से सुलझाने का उनका स्वभाव देखकर भाऊराव जी ने ही उन्हें भारतीय जनता पार्टी में काम करने को भेजा। यद्यपि प्रताप जी की रुचि का क्षेत्र संघ शाखा ही था; उनका मन भी युवाओं के बीच ही लगता था। फिर भी पूर्णतः अनासक्त की भाँति उन्होंने इस दायित्व को निभाया।
संघ और राजनीतिक क्षेत्र के काम में लगातार प्रवास करना पड़ता है। प्रवास, अनियमित खानपान और व्यस्त दिनचर्या के कारण प्रताप जी को हृदय रोग, मधुमेह और वृक्क रोग ने घेर लिया। अतः इन्हें फिर से संघ-कार्य में भेज दिया गया। चिकित्सकों ने इन्हें प्रवास न करने और ठीक से दवा लेने को कहा। भाऊराव ने प्रताप जी को लेखन कार्य की ओर प्रोत्साहित किया। प्रताप जी की इतिहास के अध्ययन में बहुत रुचि थी। संघ के शिविरों में वे रात में सब शिक्षार्थियों को बड़े रोचक ढंग से इतिहास की कथाएँ सुनाते थे। इन्हीं कथाओं को लिखने का काम उन्होंने प्रारम्भ किया।
प्रताप जी अब प्रवास बहुत कम करते थे; पर जहाँ भी जाते, थोड़ा सा समय मिलते ही तुरन्त लिखना शुरू कर देते थे। कागज और कलम वे सदा साथ रखते थे। इस प्रकार मेवाड़, गुजरात, असम, पंजाब आदि की इतिहास-कथाओं की अनेक पुस्तकें तैयार हो गयीं। लोकहित प्रकाशन, लखनऊ ने उन्हें प्रकाशित किया। पूरे देश में इन पुस्तकों का व्यापक स्वागत हुआ। आज भी प्रायः उन पुस्तकों के नये संस्करण प्रतिवर्ष प्रकाशित होते रहते हैं।
इसके बाद भी हृदय रोग क्रमशः बढ़ रहा था। प्रताप जी यमराज की पास आती पदचाप सुन रहे थे। अतः जितना समय उनके पास था, उसमें अधिकतम साहित्य वे नयी पीढ़ी को दे जाना चाहते थे। अन्त समय तक लेखनी चलाते हुए 27 अगस्त, 1993 को उन्होंने अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।